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मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

मै भारतीय राजनीति का चरित्र हूँ

जब तक विपक्ष मे रहता हूँ ... मै समाजवादी रहता हूँ ,
लेकिन जब जनता मुझे समाजवादी समझ कर चुन लेती है
जैसे ही सत्ता मिलती है .. मै पूंजीवादी हो जाता हूँ।
मै भारतीय राजनीति का चरित्र हूँ ... मै नही सुधरने वाला ।
जब तक विपक्ष मे रहता हूँ... मै स्वदेशी के नारे लगाता हूँ ,
लेकिन जब जनता मुझे राष्ट्रवादी समझ कर चुन लेती है ।
जैसे ही सत्ता मिलती है .. मै विदेशी निवेश का ढोल बजाता हूँ
मै भारतीय राजनीति का चरित्र हूँ ... मै नही सुधरने वाला ।
जब तक विपक्ष मे रहता हूँ... मै व्यवस्था परिवर्तन की हुंकार भरता हूँ ,
लेकिन जब जनता मुझे क्रांतिकारी समझ कर चुन लेती है ।
जैसे ही सत्ता मिलती है .. मै पूंजीपतियो के तलवे चाटता हूँ ,
मै भारतीय राजनीति का चरित्र हूँ ... मै नही सुधरने वाला ।

धर्म और सम्प्र्दायिकता

पूजा एक निजी विश्वास की पद्ध्ति है । हर धर्म के लोग , एक ईश्वर जिसे वह मानता है , उसकी पूजा करता है । अलग अलग जाति , गोत्र और परिवार की भी अलग - अलग पूजा पध्द्ति होती है । इस प्रकार का व्यक्ति धार्मिक कहलाता है , धर्मिक होना सम्प्रदायिक होना नही है । सम्प्र्दायिक तो वह तब बनता है जब उसी अपनी पूजा पध्द्ति सर्वश्रेष्ठ लगने लगती है , तब समझना चाहिये कि उसमे सम्प्र्दायिकता के बीज अंकुरित हो गये । फिर जैसे जैसे उसका अपने पूजा पध्द्ति पर घमंड बढते जाता है , वैसे वैसे सम्प्रदयिकता उसके अंदर पनपने लगती है । लेकिन जब वह इसका राजनीतिक इस्तेमाल करने लगता है तब वह सम्प्रदायवादी कहलाता है । और राजनीति का यह तरीका सम्प्रदायवाद कहलाता है । धार्मिक होना अलग बात है सम्प्रदायिक होना अलग बात है । धर्म का राजनीतिकरण करना ही सम्प्रदायिकता है ।

रविवार, 12 अक्तूबर 2014

विज्ञान और तकनीक ....... समय की मांग


विश्व इतिहास की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है । यदि यह प्रक्रिया रुक जाये तो ठहराव पैदा होगा जिससे प्रगति मे बाधा होगी । पानी अगर एक जगह ठहर जाये तो उसमे गंदगी और बदबू आने लगती है । इसलिये धारा निरंतर बहते रहना चाहिये । आज के नौजवानो को प्रगति के अगले चरण को देखना है , उसको भविष्य की कार्य योजना बनानी है । फिर आज के कुछ महाशय प्रगति के अगले चरण को नही देख पाते हैं , वह इतिहास मे प्रगति को तलासने लगते हैं और अपने साथियो को भी इतिहास के पिछले मंजिलो मे धकेलने की कोशिश करते है । वे अतीत के गौरव का बखान करते हैं । इतिहास हमेशा आगे बढता है कभी पीछे नही मुडता है इसलिये वह लोग जो पिछले इतिहास को वापस लाने या मुड कर जाने की बात करते हैं या कुछ इस प्रकार कहे कि इतिहास की वही पुरानी मान्यताओ जाति , धर्म या सम्प्रदाय को फिर से पुनर्जीवित करने की बाते करते हैं , उसमे गोलबंद या एक होने की बाते करते हैं या उन्ही मे ही अपना गौरव तलासते हैं जिनका आज के वैज्ञानिक और तकनीकि युग मे कोई औचित्य ही नही है । वे प्र्कृति के इस नियम को नही समझते हैं की जिस मंजिल से आप आगे बढ चुके हैं वहा दुबारा नही जा सकते । आपका अगला चरण या अगली मंजिल एक नयी सम्न्वित मंजिल होगी जो आपकी नयी उपलब्धी होगी । इस नयी उपलब्धि के लिये आपको नई कल्पनाये और नये आदर्श बनाने होंगे पुराना युग कितना भी शानदार क्यो न हो वह हमे आगे बढने के लिये प्रेरित तो कर सकता है पर वापस नही आ सकता है ।
आज का समय विज्ञान और तकनीक का है पूरे विश्व मे नित नये अविस्कार हो रहे हैं नये नये कीर्तिमान रचे जा रहे हैं पुरानी मान्यताये रोज ध्वस्त हो रही हैं । भारत देश भी अगर मंगल पर पहुचा है तो केवल और केवल विज्ञान और तकनीक की बदौलत ही है । समय का पहिया निरंतर गतिमान रहता है जो समय के साथ संघर्ष करके आगे बढा है वही उन्नति पर है और जो ठहर गया या पीछे मुड के देखने लगा है जस का तस है । जिस समाज ने सबसे पहले विज्ञान को अपनाया है वो शिखर पर हैं और जो अभी भी अपनी मान्यताओ को नही छोड पा रहे है उसी मे अपना गौरव खोज रहे हैं उनका हश्र आप इराक , सीरिया मे जाकर देख सकते हैं । अभी समय केवल और केवल विज्ञान और तकनीक का है ।
धर्म और विज्ञान दो वैचारिक ध्रुव हैं जो कभी एक नही हो सकते नदी के दो किनारो की तरह .... दोनो को साथ लेके चलना दो नाव मे एक साथ सवारी करने जैसा है .... धर्म और विज्ञान दोनो मे बुनियादी फरक है जो कभी दोनो को एक नही कर सकता है ... धर्म जडसूत्र है ... धर्म चेतना (आत्मा) को प्रमुख मानता है और पदार्थ (शरीर ) को गौण मानता है .... धर्म का मानना है की दुनिया मे पहले इश्वर आया फिर फिर उसने दुनिया की रचना की .... जब की विज्ञान इसके विपरीत है ... जहा धर्म जडसूत्र है जिसमे परिवर्तन करने की मनाही है क्योकि यह उसे ईश्वरी ज्ञान मानता है इसलिये उसमे साधारण मनुष्य परिवर्तन नही कर सकता है वही विज्ञान क्रम बद्ध ज्ञान है और निरंतर परिवर्तन शील है यह हर बार परिवर्तित होकर उत्कृष्टता को प्राप्त करता है । वही धर्म के विपरीत विज्ञान ने पदार्थ को प्रमुख माना है और चेतना को गौण माना है , अर्थात विज्ञान का मानना है की पदार्थ पहले बनता है और चेतना बाद मे विकसित होती है , इसी तथ्य पर विज्ञान ने माना है की दुनिया की रचना एक प्रक्रिया के तहत है , और विज्ञान मे ईश्वरवाद की कोई जगह नही है । अब जब दोनो के बुनियाद मे ही इतना अंतर है तो दोनो को घालमेल करना दिमागी कमजोरी को दर्शाता है ।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

नेता भ्रष्टाचार करता नही चुनाव करवाता है ।


आज के समय मे एक आम इंसान के मन मे यह धारणा बन गयी है की जो पार्टी जीतने लायक होगी उसे ही हम वोट करेंगे । दूसरे को वोट करने से हमारा वोट खराब हो जायेगा । अब जिस पार्टी का प्रचार प्रसार ज्यादा होता है या कार्यकर्ता अधिक होते हैं वो लोगो के बीच मे यही बताते हैं की हम जीत रहे हैं । इसमे मे भी सोने मे सुहागा तब हो जाता है की जब कोई एग्जिट पोल साबित करदे कि फला पार्टी बहुमत ला रही है तो ऐसे मे जनता की गोलबंदी शुरु हो जाती है । फिर जनता को भी मुद्दो से कोई मतलब नही रह जाता है तब केवल यही लक्ष्य हो जाता है की फला पार्टी को हराना है या फला पार्टी को जिताना है । अब ऐसे मे अगर किसी पार्टी को बहुमत हासिल करना है तो फिर उसे ये साबित करने के लिये को वह जीत रहा है अधिक से अधिक पैसो की जरुरत होती है जिससे की बडी से बडी रैली , अधिक से अधिक कार्यकर्ता को रख सके । और उसे मीडिया को भी अपने पक्ष मे करना होता है । इस प्रकार एक ही चुनाव मे जिस पार्टी को बहुमत हासिल करनी है उसे अधिक से अधिक पैसो की जरुरत होती है । अब इतना पैसा कोई भी राजनीतिक पार्टी जनता से चंदा लेकर तो नही एकत्र नही कर सकती है । तो उसके पास दूसरा विकल्प भ्रष्टाचार ही होता है पार्टी ऐसे लोगो को टिकट देती है जो चुनाव मे ठीक ठाक पैसे खर्च कर चुनाव जीत सके । फिर पूंजीपतियो से सशर्त चंदा लिया जाता है कि हमारी पार्टी की नीतिया आपके पक्ष मे ही रहेंगी । फिर जब इस प्रकार वह पार्टी जीत जाती है तो नेता चुनाव मे किया गया खर्च ब्याज सहित वसूलता है और अगले चुनाव के लिये भी खर्च एडवांस मे वसूल लेता है ।वही कालाधन होता है अब जब नेता ऐसा करते हैं तो अधिकारियो को भी बढावा मिल जाता है फिर यह भ्रष्टाचार अधिकारियो से कर्मचारियो और फिर यह आम जनता मे आ जाता है । इस प्रकार हम देखते हैं की भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे की ओर आता है । वही दूसरी तरफ पार्टी भी जो पूंजीपतियो से चंदा ली रहती हैं तो जीतने के बाद पांच साल उनकी हरवाही करते हैं और उनके अनुसार ही कानून बनता है । अब ऐसे मे आम जनता सोचता है फला पार्टी को जिताने से कोई फायदा नही हुआ अब फला को जिताएंगे । इसमे भी वही शर्त होती है की कौन पार्टी इस पार्टी को हरा सकती है और कौन जीत सकती है । अब बाकी पार्टिया भी इस अंधी दौड मे शामिल हो जाते हैं । और हर पांच साल मे यह चक्र अपने आप को दोहराता है । अब अगर इस चक्र से बचना है तो दो ही तरीके हो सकते हैं या तो सौ प्रतिशत लोग राजनीति की समझ रखते हो । या फिर चुनाव प्रणाली मे बदलाव लाया जाय क्योकि भ्रष्टाचार का असली जड चुनाव है और अधिकांश कालाधन भी चुनाव के लिये ही इकट्ठा किया जाता है । इसलिये चुनाव प्रणाली मे बदलाव बहुत जरूरी है और इससे भ्रष्टाचार और कालाधन दोनो को खत्म किया जा सकता है । मेरे जानकारी अनुसार कुछ सुझाव इस प्रकार है ।
1. एग्जिट पोल को पूरी तरह से बैन किया जाय ।
2. .चुनाव के समय निजी धन या निजी प्रचार के उपयोग पर पूरे तरीके से रोक लगाया जाय ।
3. चुनाव को प्रतिस्पर्धा न बनाकर समान अवसर बनाना चाहिये जैसे सभी प्रत्यासियो को अलग अलग प्रचार करने छूटृ न देकर उनको एक साथ एक मंच पर अपनी अपनी कार्ययोजना बताने का मौका मिले । इसके लिये चुनाव आयोग या किसी अन्य सामुहिक संस्था द्वारा आयोजन करवाया जाये । आवश्यकता ये आयोजन कई जगह करवाई जा सकती है । इससे एक सही और योग्य आदमी का चुनाव आसान हो जायेगा । और उसकी कार्ययोजना भी पता चल जायेगा । वही दूसरी तरफ जहा राजनीतिक पार्टिया अधिक जन - धन वाले को टिकट देते थे वही पार्टीया फिर योग्य और बेहतर व्यक्ति को टिकट देंगी । इसमे जहा गलत व्यक्ति का चुनाव बंद हो जायेगा तो वही दूसरी तरफ देश को एक योग्य शासक मिलेगा । तभी सही मायनो मे लोकतंत्र होगा और तब ही सही अज़ादी होगी अभी तो लोकतंत्र धनवानो और बाहुबलियो के बीच कैद है ।


बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

शिक्षा का बाज़ारीकरण

एक ज़माना था जब तब निम्न तबको पिछ्डे दलितो को शिक्षा का अधिकार नही था
शिक्षा केवल उच्च वर्णो के लोगो के लिये था अब देश मे लोकतंत्र आ गया है इसलिये अब कानूनी रूप से तो ऐसा नही कर सकते लेकिन ये साज़िश अब भी ज़ारी है कि कैसे पिछ्डो दलितो को शिक्षा से वंचित रखा जाये क्योकि उस समय के उच्च वर्ण को अनपढ मज़दूर की ज़रुरत थी जो बिना अपना अधिकार जाने और बिना अपने श्रम कीमत जाने मज़दूरी करते रहे । और आज़ के उच्च या कहे पूंजीपती वर्ग को भी ऐसे ही मज़दूर चाहिये जिससे मुनाफा अधिक कमाया जा सके । इसलिये शिक्षा व्यवस्था ही ऐसा बनाया जा रहा है कि निम्न वर्ग का आदमी इस रेस से बाहर हो जाये इसके कुछ उदाहरण मैंने समझा है आपसे साझा कर रहा हूँ ।
1. शिक्षा को अधिक से अधिक महगा किया जा रहा है जिससे यह गरीब की पहुच से दूर हो जाये ।
2. सरकारी स्कूल कालेजो को बदहाल किया जा रहा है ताकि ज़ल्द से जल्द ये बंद हो सके ।
3. सरकारी स्कूल मे कम वेतन और ठेके पर शिक्षक रखा जा रहा है ताकि निजि स्कूल से प्रतिस्पर्धा ही ना हो पाये ।
अब आप ही समझिये जिस शिक्षा व्यवस्था मे दो तरह से शिक्षा पध्दति होगी जिसमे एक तरफ निजि कार्पोरेट स्कूल मे पढे बच्चे होंगे और दूसरी तरफ सरकारी स्कूल मे पढे बच्चे होंगे । नौकरी और मेरिट किसे मिलेगा अब आप समझ सकते हैं। और जो बचेगा वो रोजी रोटी के लिये अपने श्रम को किसी भी कीमत मे बेचने को तैयार रहेगा । कार्पोरेट स्कूलो के ज़रिये एक एलीट क्लास बनाया जा रहा है । जिसका शासन प्रशासन और सभी संसाधनो पर एकाधिकार रहेगा और बाकि तबका इन लोगो के रहम पर जियेगा ।

ईश्वर कौन है .....

एक बार एक सज्जन से मैंने पूछा ईश्वर कौन है ..... तो उसने कहा सृजनकर्ता ईश्वर है ........ तब से मैंने मज़दूर को ईश्वर समझना शुरु कर दिया । अगर दुनिया बनाने वाला ही ईश्वर है तो मजदूर ही है जो दुनिया बनाया है ..... अरे मंदिरो मे तो पत्थर रखे है अगर वो मंदिर सुंदर है वो पत्थर मे ईश्वर का प्रतिबिम्ब दिखता है तो उसको तराशने वाला उस ईश्वर को बनाने वाला तो मजदूर ही है ...................... अगर आप कहते हो पालनहार ही ईश्वर है तो मेरा ईश्वर तो किसान है जो अन्न उगाकर कर मेरा पालन करता है । अगर फिर भी कहते हो मै नास्तिक हूँ । तो ....... फिर कहते रहो..

ये सवाल आपका है और देश का भी.......

बहुत ही खेद के साथ कहना पड रहा है कि हमारे अमन पसंद देश मे कुछ लोगो के द्वारा जहर घोला जा रहा है । मै इस समय कुछ ऐसी बेतुकी घट्नाओ को देख रहा हूँ । जिसमे मामला बहुत छोटा या द्विपक्षीय है वो भी दंगो की शक्ल ले ली रही है यह मामला बेहद गम्भीर है की आज के इस आधुनिक समाज मे भी क्या कोई अपनी जाति या धर्म के लिये इतना कट्टर हो सकता है । इस समय मै सोशल मीडिया मे देख रहा हूँ कि प्रोफाइल फोटो मे तो एक दम कोट शूट लगा कर एकदम सभ्य दिखने की कोशिश करते हैं लेकिन जब ये पोस्ट लिखते हैं की....... मै कट्ट्रर हिंदु हूँ ।....... कोई लिखता है मै कट्ट्रर मुसलिम हूँ ... कोई लिखता है इस धर्म वालो को काटो तो ....कोई कहता है उस धरम वालो को काटो ......
ये बेशर्म लोग इतने मे ही नही रुकते जो लोग अमन चैन के साथ रहना चाह्ते है या कहे धर्म निरपेक्ष या सेकुलर हैं उन्हे फेकुलर , नामर्द , पाकिस्तानी या तरह तरह से फेसबूक मे गाली देकर या दूसरे तरीके से उकसाते हैं ।
क्या सभी विवादो का हल दंगा ही है या मारने काटने से ही ये हल हो सकता है .... जो ये सोचते हैं की दंगा से ही हल निकलेगा या ऐसे लोग जो की गर्व से अपने को कट्ट्रर हिंदू या कट्ट्रर मुस्लिम कहते हैं और हर हाल मे लडाई चाहते है जिनका खून बहुत ही ज्यादा ऊबाल मार रहा है । वे लोग एक बडे से मैदान मे इकटठा हो जाये और जितना खून खराबा करना है कर ले क्योकि यही लोग एक दूसरे के धर्म के भी दुश्मन है और मानवता के भी .... क्यो बे वजह समाज मे गंदगी कर रहे हो तुम्हारे कारण बेगुनाह भी मारा जाता है ।
मै सभी लोगो से आपील करता हूँ की कही भी अगर धर्म जाति की कोई बात करता है या आपको उकसाता है तो आप उसकी बातो मे बिल्कुल भी न आये क्योकि वो आपके धर्म या जाति का हितैशी बिल्कुल भी नही है बल्की वह राजनीति कर रहा है आपके धर्म या जाति के नाम पर क्योकि उसे सत्त्ता तक पहुचना है । ये राजनीति करने वाले न कभी दंगे मे मारे जाते हैं और ना ही दंगो मे इनके बहु बेटियो का बलात्कार होता है.... बल्कि दंगो के परिणाम आपको ही झेलना है ।
इसलिये ज़रा सतर्क रहिये और इस बारे मे गम्भीरता से सोचिये ।
धन्यवाद

राष्ट्र्वाद भी एक नशा ही है ....

राष्ट्र्वाद भी एक नशा ही है ....
जिसका सरकार भी बडे अच्छे तरीके से इस्तेमाल करती है । जब जनता गरीबी , बेरोजगारी , और महगाई पर बहस करने लगती है तो उससे उबरने का रास्ता यही है , किसी पडोसी देश से बैर करलो । जनता सारी समस्या भूल जायेगी , शासक के सारी गलती माफ हो जायेगी ,जनता भले भूख से तडप रही हो पर सपने पडोसी देश को सबक शिखाने के ही देखेंगे । राष्ट्रवाद का नशा ही कुछ इस प्रकार का होता है ।
अभी पाकिस्तान के हालात कुछ ऐसे ही हैं की वहा की सरकार बाकि मुद्दो को दबाने के लिये सेना ने सरहद पर हरकते तेज़ कर दी है । जिसमे भारत की स्थिती समझना बाकी है ।
जब दो देश आपस मे युध्द करे तो कारण एक यह भी हो सकता है की कैसे जनता का ध्यान भटकाया जाये इसमे दोनो देशो के शासको का भला हो जाता है और जनता हमेशा की तरह मार खाती है ।

साई कौन थे ?

साई भगवान थे , संत थे या इंसान थे या जो कुछ भी थे लेकिन आज के ये जितने पाखंडी संत , भगवान या इन्सान है उनसे तो लाख गुना अच्छे थे । एयर कंडीसनर बंगलो मे रहने वाले दुनिया के तमाम ऐशो आराम को भोगने वाले ये जो संत बनते है जिनके मुह से नफरत के अलावा कोई बात नही निकलती उनको तो पूरी उम्र गरीबी मे ज़ीने वाले और प्रेम का संदेश देने वाले साई के बारे मे बोलने मे भी शर्म आनी चाहिये । जहा देश महगाई बेरोजगारी और तमाम समस्याओ से ग्रस्त हैं वहा इस प्रकार के बेतुक मुद्दो को पैदा करना .... जनता को मुद्दो से भटकाने के अलावा और कुछ नही है ।

आरक्षण और योग्यता

आज सुबह एक मेरे मित्र ने मुझसे कहा की एस सी /एस टी को मुझे गाली देने का मन करता है क्योकि इनके वजह से हमको नौकरी नही मिल रही है , ये लोग हमारी नौकरी छीन रहे हैं इस देश मे हमारे लिये कुछ नही है, सरकार हर सुविधाये केवल एस सी/एस टी को ही दे रही है । मै जानता हूँ की यह उनके मन की उपज नही है बल्कि यह बात को मै कई बार सुन चुका हूँ । यह नफरत की राजनीति का हिस्सा मात्र है जिसमे यह बताकर कि तुम्हारा सारा हिस्सा ये एस सी / एस टी को दे दिया जा रहा है इस लिये तुम बेरोजगार हो , गरीब हो । इस प्रकार एस सी/एस टी के खिलाफ ज़हर भरा जा रहा है ।
अगर इनकी यह बात सच है की एस सी / एस टी दूसरे का हिस्सा भी छीन ले रहे हैं इसलिये बेरोजगारी है तो इस हिसाब से तो एस सी / एस टी अपने ज़नसंख्या जो की भारत की जनसंख्या का 23 % है उस से ज्यादा का देश के संसाधन (समपत्ति ) और नौकरी पर कब्ज़ा होना चाहिये क्या ऐसा है नही है जब उन्हे खुद अपना ही हिस्सा नही मिल रहा है दूसरो का हिस्सा क्या छीनेंगे । वैसे भी छीनने के लिये ताकतवर होना पडता है । मेरे मित्र को यह पता करना चाहिये की देश की सम्पत्ति आखिर मे किसके पास है और कौन धीरे धीरे जल जंगल जमीन पर कब्जा कर रहा है । मेरे मित्र को उससे लडना चाहिये लेकिन वो दबंग हैं पैसेवाले हैं उससे नही लड सकते कमज़ोर से लडना आसान है ।
अपनी बात को सही साबित करने के लिये उन्होने दूसरी दलील यह दी की योग्यता ही पैमाना होना चाहिये । मतलब अगर देखा ज़ाय की अगर एक मा के चार लडके हैं उनको रोटी का बराबर हिस्सा न देकर , रोटी को एक टेबल पर रख दिया जाय और चारो लडको को ये छूट दे दे की जो सबसे योग्य है वो ये रोटी खा ले । जब की छोटा भाई इतना छोटा है की वह टेबल तक पहुच ही नही पाता है । अगर मा को यह देख कर बुरा लग रहा है की सबसे छोटे को उसका अधिकार नही मिल रहा है और उसके बराबर हिस्सेदारी के लिये अगर मा उसे एक कुर्सी दे दे जिससे की वह अपने बाकि भाइयो के बराबर हो जाये तो बडे भाई को यह देखकर बहुत बुरा लगता है की मा छोटे भाई को ये सुविधा (आरक्षण )
क्यो दे रही है ।
अगर योग्यता ही पैमाना है तो फिर तो दुनिया का जो सबसे योग्य शासक है उसे ही भारत मे राज करना चाहिये । आप योग्यता किसे कहोगे एक भाई है जो सुबह उठकर घर का काम करता है , गाय चराता है अपनी रोजी रोटी के लिये पिताजी के साथ खेत मे काम करता है और उसके साथ साथ ही पढकर 60 % अंक लाता है जब की एक भाई है जिसको केवल पढ्ना है इस पढाई के लिये भी उसको हर विषय के अलग अलग शिक्षक है । पढने मे कोई तकलीफ न हो इसके लिये पंख़ा कूलर है । तबियत ठीक रहे इसके लिये फल जूस और तरह तरह की सुविधाये है इसके बाद वह 80% अन्क लाता है । कौन सबसे योग्य है।
अगर सबके लिये योग्यता का पैमाना एक रखना है तो सबके लिये लाईन (सामजिक- आर्थिक स्थिति ) एक रख्ननी होगी

भगत सिन्ह और उनकी अज़ादी





28 सितम्बर 1907 को एक ऐसा बालक पैदा हुआ जो अपनी 23 साल के अल्पकालिक जीवन मे अंग्रेज़ी रियासत की चूले हिला दी । एक ऐसा नौजवान जो अगर होता तो आज होता उसकी उम्र 107 वर्ष होती । लेकिन गौर करने की बात यह है कि लाखो शहीदो के बीच वह शहीदे आज़म कैसे बन गया । वह उनसे अलग कैसे हो गया जबकी लडाई तो सबने लडी थी । शायद इसलिये क्योकि वह नौजवान 12 साल के उम्र मे जलियावाला बाग की मिट्टी लेने पहुच गया था । शायद इसलिये क्योकि 12 वर्ष के उम्र से ही सोचने विचारने की प्रकिया मे लग गया था । 16 साल की उम्र मे वह अपना घर छोड दिया था । और कम उम्र से ही जो एक प्रौढ चिंतक की तरह लेख लिखने लगा था । जिसमे विज्ञान और तर्क कूट कूट कर भरा था । वह नौजवान वाकई सबसे अलग था क्योकि वह 16 वे से अपने अंतिम समय 23 वर्ष की उम्र तक मे यानि केवल सात वर्ष मे एक क्रांतिकारी , एक संगठन कर्ता , एक सामाजिक चिंतक के रूप ऐसा काम कर डाला की आज वह विश्व के उन गिने चुने क्रांतिकारियो मे शुमार हो गया । जो कि विरले ही हैं ।
आप समझ सकते हैं कि शहीदे आजम भगत सिन्ह सात वर्ष की इस अवधि मे कितना कठिन मेहनत किया रहा होगा । की आज भगत सिन्ह के नाम से जन जन परिचित है । लेकिन विडम्बना ही कहिये की आज उनका केवल एक ही पक्ष देखा जाता है । लेकिन क्या वास्तव मे भगत सिन्ह वैसे ही थे जैसे की आज उन्हे चित्रित किया जा रहा है । ऐसी क्या बात है कि भगत सिन्ह का नाम तो सब लेते हैं पर उनके विचारो पर चुप हो जाते हैं । भगत सिन्ह के बारे मे हमारे पाठयपुस्तक से यही पढाया जाता है कि

“ भारत माता का सपूत वो आजादी का दीवाना था
हंस कर झूल गया फांसी पर भगत सिन्ह मस्ताना था “

लेकिन क्या भगत सिन्ह केवल अज़ादी का दीवाना था जो हंसते हंसते फांसी पर चढ गया ? क्या भगत सिन्ह की अपनी कोई सोच नही थी ? क्या उसके अपने कोई कार्यक्रम नही थे ? क्या उसके अज़ादी के मायने वही थे जो उस समय के कांग्रेस के थे ? क्या यह वही आजादी है जिसका सपना भगत सिन्ह ने देखा था । अगर ऐसा होता तो भगत सिन्ह कांग्रेस से अलग संगठन नही बनाते । अगर ये आजादी कांग्रेस के रास्ते आई है तो वो कैसी आज़ादी चाहते थे ?

भगत सिन्ह ने 8-9 सितम्बर 1928 को हिंदोस्तान सोशिलिस्ट रिपब्लिकन एशोसियेशन के स्थापना के समय यह कहा था की अगर कांग्रेस के रास्ते देश मे आज़ादी आयेगी तो गोरी सरकार तो चली जायेगी उसके बदले भूरी सरकार आ जायेगी । व्यवस्था जस की तस रहेगी अमीर और अमीर होते जायेगा गरीब और गरीब होते जायेगा और धर्म और जाति के नाम पर इतने दंगे होंगे की उन दंगो की आग को बूझाते बूझाते आने वाली नस्लो की कमर टूट जायेगी ।

भगत सिन्ह और कांग्रेस दोनो के अजादी के मायने बिल्कुल अलग थे भगत सिन्ह के आजादी का मतलब जनता की सामाजिक और आर्थिक आज़ादी से था। उन्होने जो आजादी का सपना देखा था उसके बारे मे 2 फरवरी 1931 को जेल मे लिखे एक लेख जो कौम के नाम संदेश के नाम से प्रसिध्द है उससे पता चलता है जिसमे भगत सिन्ह ने लिखा है कि “ हमारा लक्ष्य देश मे समाजवादी समाज की स्थापना करना है । कांग्रेस और हमारे दल मे यही अंतर है । राजनीतिक क्रांति से सत्ता शक्ति अंग्रेजो के हाथ से निकलकर हिंदोस्तानियो के हाथ मे आ जायेगी । हमारा लक्ष्य इस सत्ता शक्ति को उन हाथो के सुपुर्द करना है जिनका लक्ष्य समाजवाद है । इसके लिये मजदूरो और किसानो को संगठित करना होगा क्योकि उनके लिये लार्ड रीडिंग या इर्विन की जगह तेजबहादुर या ठाकुर दास आ जाये कोई फर्क नही पडेगा । पूर्ण स्वाधीनता से हमारे दल का उद्येश्य यही है । “

भगत सिन्ह कहा था कि हमारे दुश्मन जितने विदेशी पूंजीपति है उतने ही मेरे दुश्मन देशी पूंजीपति और रियासतदार हैं और देश की जनता को इन दोनो से लडना है ।

भगत सिन्ह ने क्रांति के बारे मे कहा था कि - “ क्रांति से हमारा अभिप्राय समाज के वर्तमान प्रणाली और वर्तमान संगठन को पूरी तरह उखाड फेंकना है । इस उद्येश्य के लिये हम पहले सरकार की ताकत को अपने हाथ मे लेना होगा । इस समय शासन की मशीन धनवानो के हाथ मे है । समान्य जनता के हित के लिये अपने आदर्शो को क्रियात्मक रूप देने के लिये कार्ल मार्क्स के सिध्दांतो के अनुसार संगठन बनाने के लिये हम सरकार की मशीन को अपने हाथ मे लेना चाहते हैं । हम उस उद्येश्य के लिये लड रहे हैं परंतु इसके लिये साधारण जनता को शिक्षित करना है ।“

उक्त बातो से पूरी तरह साफ होता है कि भगत सिन्ह की आज़ादी वो नही है जिसे हम आज़ादी समझते हैं । वह तो कार्ल मार्क्स के अनुसार एक ऐसी व्यवस्था चाह्ते थे जो शोषण से मुक्त हो , जिसमे न कोई मालिक हो न कोई नौकर जिसमे मुफ्तखोर के लिये जेल हो और मेहनत कश का राज हो , जिसमे सामाजिक सुरक्षा की पूरे गारन्टी हो शिक्षा स्वास्थ्य पर सबका बराबर अधिकार हो , अमीर और गरीब के हिसाब से स्कूल , अस्पताल न होकर एक जैसा हो । यही वैज्ञानिक समाजवाद है जिसमे न कोई छोटा हो न कोई बडा हो । शासन व्यवस्था मुफ्तखोरो के हाथ मे न होकर मजदूरो , मेहनतकशो के हाथ मे हो यही समाजवाद है यही विज्ञान है यही न्याय है । और यही असली आज़ादी है। और एक दिन भगत सिन्ह का यह सपना ज़रूर पूरा होगा ।

अंधेर नगरी ......................

पहले जब कभी कभी किसी राज्य का राजा अपने राज्य मे राज्य की दशा देखने के लिये निकलता था तो भेष बदल कर निकलता था क्योकि उसे लगता था की जब आम आदमी बन कर जाउंगा तभी हकीकत मालूम होगी । औचक निरीक्षण से ही पर्दाफास होता है । दिल्ली मे स्थित बाल्मिक सदन जहा कभी महात्मा गांधी रह चुके है वहा से 2 अक्टुबर को प्रधानमंत्री जी सफाई अभियान की शुरुआत करेंगे । कल एन डी टी वी मे रविश कुमार ने एक रिपोर्ट दिखाई की कैसे वहा अभी से ही साफ सफाई , दीवालो की रंगाई , और बाल्मिक मंदिर मे टाईल्स बिछ रहा है । मतलब जब प्रधानमंत्री यहा आएंगे तब तक मे ये एकदम साफ सुथरा और चमक रहा होगा । फिर उस समय मीडिया की भीड यह दिखाईगी की कैसे एक साफ जगह को प्रधान मंत्री जी साफ कर रहे है । वाकई अचरज की बात है इस समय देखा जा रहा है मंत्री लोग कैसे झाडू लेकर फोटो शूट करा रहे हैं ।
अगर वो इस अभियान मे गम्भीर हैं तो अपने बंगलो से सफाई कर्मचारियो को निकाल दे और अपना काम खुद करे । नही तो सिर्फ फ़ोटो शूट कराने से अभियान सफल नही होगा ।
अभियान सफल करना है तो यह सबकी जिम्मेदारी होनी चाहिये की गंदगी जो करेगा साफ भी वही करेगा । नही तो जैसे हजारो साल ये रीति बना दी गयी है की गंदगी साफ करने और सफाई के लिये एक विशेष समुदाय को लगा दे । ये कैसा समाज है की जहा गंदगी करने वाले श्रेष्ठ माने जाते है और उस गंदगी को साफ करने वाले अछूत माने जाते है ........... वाह रे दोगला समाज .........

नोट : ‌ - यही समाज के लोग हैं जो अपने आप को विश्व गुरु भी कहते हैं ।

शनिवार, 4 जनवरी 2014

why I am athiest -- By Bhagat Singh



यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार पीपलमें प्रकाशित हुआ इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है

 
"एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूँ? मेरे कुछ दोस्तशायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूँमेरे साथ अपने थोड़े से सम्पर्क में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्य हूँ, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमज़ोरी मेरे अन्दर भी है। अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कामरेडो के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निन्दा भी की गयी। कुछ दोस्तों को शिकायत है, और गम्भीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार, उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है। इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है। मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमण्ड नहीं कहा जा सकता। घमण्ड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?
मैं यह समझने में पूरी तरह से असफल रहा हूँ कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस तरह किसी व्यक्ति के ईश्वर में विश्वास करने के रास्ते में रोड़ा बन सकता है? किसी वास्तव में महान व्यक्ति की महानता को मैं मान्यता दूँयह तभी हो सकता है, जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्त हो गया हो जिसके या तो मैं योग्य नहीं हूँ या मेरे अन्दर वे गुण नहीं हैं, जो इसके लिये आवश्यक हैं। यहाँ तक तो समझ में आता है। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति, जो ईश्वर में विश्वास रखता हो, सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बन्द कर दे? दो ही रास्ते सम्भव हैं। या तो मनुष्य अपने को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या वह स्वयं को ही ईश्वर मानना शुरू कर दे। इन दोनो ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता। पहली अवस्था में तो वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के अस्तित्व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूँ। यह अहंकार नहीं है, जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धान्त को ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया। मैं तो एक प्रतिद्वन्द्वी हूँ, ही एक अवतार और ही स्वयं परमात्मा। इस अभियोग को अस्वीकार करने के लिये आइए तथ्यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्तों के अनुसार, दिल्ली बम केस और लाहौर षडयन्त्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूँ।
मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था। पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का कोई मौका ही मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। मेरे बाबा, जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं। एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी0 0 वी0 स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त में घण्टों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया। जहाँ तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है, वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं। उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतन्त्रता के ध्येय के लिये अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किन्तु वे नास्तिक नहीं हैं। उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ। असहयोग आन्दोलन के दिनों में राष्ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्याओंयहाँ तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया। पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था। उस समय तक मैं अपने लम्बे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी-भी सिक्ख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धान्तों में विश्वास हो सका था। किन्तु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी। बाद में मैं क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ा। वहाँ जिस पहले नेता से मेरा सम्पर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठ पूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, ‘'जब इच्छा हो, तब पूजा कर लिया करो।'’ यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है। दूसरे नेता, जिनके मैं सम्पर्क में आया, पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचीन्द्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षडयन्त्र केस के सिलसिले में आजीवन कारवास भोग रहे हैं। उनकी पुस्तकबन्दी जीवनईश्वर की महिमा का ज़ोर-शोर से गान है। उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदान्त के कारण बरसाये हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जोदि रिवोल्यूशनरी’ (क्रान्तिकारी) पर्चा बाँटा गया था, वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गयी है। मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रान्तिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के सभी चार शहीदों ने अपने अन्तिम दिन भजन-प्रार्थना में गुजारे थे। राम प्रसादबिस्मिलएक रूढ़िवादी आर्य समाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद राजेन लाहड़ी उपनिषद एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा सके। मैंने उन सब मे सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा, जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, ‘'दर्शन शास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है। वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परन्तु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की।
इस समय तक मैं केवल एक रोमान्टिक आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। अब तक हम दूसरों का अनुसरण करते थे। अब अपने कन्धों पर ज़िम्मेदारी उठाने का समय आया था। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक निर्णायक बिन्दु था।अध्ययनकी पुकार मेरे मन के गलियारों में गूँज रही थीविरोधियों द्वारा रखे गये तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिये अध्ययन करो। अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिये सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए। रोमांस की जगह गम्भीर विचारों ने ली ली। और अधिक रहस्यवाद, ही अन्धविश्वास। यथार्थवाद हमारा आधार बना। मुझे विश्वक्रान्ति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता माक्र्स को, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाये थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे निरलम्ब स्वामी की पुस्तकसहज ज्ञानमिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था।
मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ़्तार हुआ। रेलवे पुलिस हवालात में मुझे एक महीना काटना पड़ा। पुलिस अफ़सरों ने मुझे बताया कि मैं लखनऊ में था, जब वहाँ काकोरी दल का मुकदमा चल रहा था, कि मैंने उन्हें छुड़ाने की किसी योजना पर बात की थी, कि उनकी सहमति पाने के बाद हमने कुछ बम प्राप्त किये थे, कि 1927 में दशहरा के अवसर पर उन बमों में से एक परीक्षण के लिये भीड़ पर फेंका गया, कि यदि मैं क्रान्तिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला एक वक्तव्य दे दूँ, तो मुझे गिरफ़्तार नहीं किया जायेगा और इसके विपरीत मुझे अदालत में मुखबिर की तरह पेश किये बेगैर रिहा कर दिया जायेगा और इनाम दिया जायेगा। मैं इस प्रस्ताव पर हँसा। यह सब बेकार की बात थी। हम लोगों की भाँति विचार रखने वाले अपनी निर्दोष जनता पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह सी0 आई0 डी0 के वरिष्ठ अधीक्षक श्री न्यूमन ने कहा कि यदि मैंने वैसा वक्तव्य नहीं दिया, तो मुझ पर काकोरी केस से सम्बन्धित विद्रोह छेड़ने के षडयन्त्र तथा दशहरा उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिये मुकदमा चलाने पर बाध्य होंगे और कि उनके पास मुझे सजा दिलाने फाँसी पर लटकवाने के लिये उचित प्रमाण हैं। उसी दिन से कुछ पुलिस अफ़सरों ने मुझे नियम से दोनो समय ईश्वर की स्तुति करने के लिये फुसलाना शुरू किया। पर अब मैं एक नास्तिक था। मैं स्वयं के लिये यह बात तय करना चाहता था कि क्या शान्ति और आनन्द के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दम्भ भरता हूँ या ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धान्तों पर अडिग रह सकता हूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। नहीं, मैंने एक क्षण के लिये भी नहीं की। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूँ। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम था।विश्वासकष्टों को हलका कर देता है। यहाँ तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है। तूफ़ान और झंझावात के बीच अपने पाँवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घड़ियों में अहंकार यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्य अपने विश्वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। यदि ऐसा करता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ़ अहंकार नहीं वरन् कोई अन्य शक्ति है। आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है। निर्णय का पूरा-पूरा पता है। एक सप्ताह के अन्दर ही यह घोषित हो जायेगा कि मैं अपना जीवन एक ध्येय पर न्योछावर करने जा रहा हूँ। इस विचार के अतिरिक्त और क्या सान्त्वना हो सकती है? ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है। एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनन्द की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिये पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किन्तु मैं क्या आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फ़न्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगावह अन्तिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जायेगी। आगे कुछ रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई ज़िन्दगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगीयदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो। बिना किसी स्वार्थ के यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएँ मिल जायेंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारम्भ होगा। वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिये उत्प्रेरित होंगे। इस लिये नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है यहाँ या अगले जन्म में या मृत्योपरान्त स्वर्ग में। उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शान्ति स्थापित करने के लिये इस मार्ग को अपनाना होगा। क्या वे उस रास्ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिये ख़तरनाक किन्तु उनकी महान आत्मा के लिये एक मात्र कल्पनीय रास्ता है। क्या इस महान ध्येय के प्रति उनके गर्व को अहंकार कहकर उसका गलत अर्थ लगाया जायेगा? कौन इस प्रकार के घृणित विशेषण बोलने का साहस करेगा? या तो वह मूर्ख है या धूर्त। हमें चाहिए कि उसे क्षमा कर दें, क्योंकि वह उस हृदय में उद्वेलित उच्च विचारों, भावनाओं, आवेगों तथा उनकी गहराई को महसूस नहीं कर सकता। उसका हृदय मांस के एक टुकड़े की तरह मृत है। उसकी आँखों पर अन्य स्वार्थों के प्रेतों की छाया पड़ने से वे कमज़ोर हो गयी हैं। स्वयं पर भरोसा रखने के गुण को सदैव अहंकार की संज्ञा दी जा सकती है। यह दुखपूर्ण और कष्टप्रद है, पर चारा ही क्या है?
आलोचना और स्वतन्त्र विचार एक क्रान्तिकारी के दोनो अनिवार्य गुण हैं। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा के प्रति विश्वास बना लिया था। अतः कोई भी व्यक्ति जो उस विश्वास को सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व को ही चुनौती दे, उसको विधर्मी, विश्वासघाती कहा जायेगा। यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खण्डन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्वर के प्रकोप से होने वाली विपत्तियों का भय दिखा कर दबाया नहीं जा सकता तो उसकी यह कह कर निन्दा की जायेगी कि वह वृथाभिमानी है। यह मेरा अहंकार नहीं था, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया। मेरे तर्क का तरीका संतोषप्रद सिद्ध होता है या नहीं इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं। मैं जानता हूँ कि ईश्वर पर विश्वास ने आज मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हलका कर दिया होता। उस पर मेरे अविश्वास ने सारे वातावरण को अत्यन्त शुष्क बना दिया है। थोड़ा-सा रहस्यवाद इसे कवित्वमय बना सकता है। किन्तु मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूँ। मैं अन्तः प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूँ। इस ध्येय में मैं सदैव सफल नहीं हुआ हूँ। प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है। सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है। कोई भी मनुष्य, जिसमें तनिक भी विवेक शक्ति है, वह अपने वातावरण को तार्किक रूप से समझना चाहेगा। जहाँ सीधा प्रमाण नहीं है, वहाँ दर्शन शास्त्र का महत्व है। जब हमारे पूर्वजों ने फुरसत के समय विश्व के रहस्य को, इसके भूत, वर्तमान एवं भविष्य को, इसके क्यों और कहाँ से को समझने का प्रयास किया तो सीधे परिणामों के कठिन अभाव में हर व्यक्ति ने इन प्रश्नों को अपने ढ़ंग से हल किया। यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों में हमको इतना अन्तर मिलता है, जो कभी-कभी वैमनस्य तथा झगड़े का रूप ले लेता है। केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है, बल्कि प्रत्येक गोलार्ध के अपने विभिन्न मतों में आपस में अन्तर है। पूर्व के धर्मों में, इस्लाम तथा हिन्दू धर्म में ज़रा भी अनुरूपता नहीं है। भारत में ही बौद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग है, जिसमें स्वयं आर्यसमाज सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाये जाते हैं। पुराने समय का एक स्वतन्त्र विचारक चार्वाक है। उसने ईश्वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी। हर व्यक्ति अपने को सही मानता है। दुर्भाग्य की बात है कि बजाय पुराने विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाने के हम आलसियों की तरह, जो हम सिद्ध हो चुके हैं, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की चीख पुकार करते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं।
सिर्फ विश्वास और अन्ध विश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन रूढ़िगत विश्वासों को चुनौती देनी होगी। प्रचलित मतों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि वे तर्क का प्रहार सह सके, तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेगा। तब नये दर्शन की स्थापना के लिये उनको पूरा धराशायी करकेे जगह साफ करना और पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग करके पुनर्निमाण करना। मैं प्राचीन विश्वासांे के ठोसपन पर प्रश्न करने के सम्बन्ध में आश्वस्त हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगतिशील आन्दोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिये प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है। हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं।
यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बतायें कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनियाअसंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है। कृपया यह कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी कहें कि यह उसका मनोरंजन है। नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगांें की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिये। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाये जाते हैं। पन्ने उसकी निन्दा के वाक्यों से काले पुते हैं, भत्र्सना करते हैंनीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट। एक चंगेज खाँ ने अपने आनन्द के लिये कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को, जो हर दिन, हर घण्टे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहा, और अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो, जो चंगेज खाँ से प्रत्येक क्षण अधिक है? क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दण्ड देने के लिये हो रहा है? ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे, जो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिये करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगायेगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहाँ तक उचित करते थे कि एक भूखे ख़ूंख़्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि, यदि वह उससे जान बचा लेता है, तो उसकी खूब देखभाल की जायेगी? इसलिये मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों की? आनन्द लूटने के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?
तुम मुसलमानो और ईसाइयो! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व के उत्पत्ति के लिये छः दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक है? बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है। कारावास की काल-कोठरियों से लेकर झोपड़ियों की बस्तियों तक भूख से तड़पते लाखों इन्सानों से लेकर उन शोषित मज़दूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानवशक्ति की बर्बादी देख रहे हैं, जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा, और अधिक उत्पादन को ज़रूरतमन्द लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने से लेकर राजाआंे के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है- उसको यह सब देखने दो और फिर कहेसब कुछ ठीक है! क्यों और कहाँ से? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो। ठीक है, तो मैं आगे चलता हूँ।
और तुम हिन्दुओ, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताकत है। न्यायशास्त्र के अनुसार दण्ड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैंप्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धान्त की निन्दा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धान्त का भी अन्त वहीं है। सुधार करने का सिद्धान्त ही केवल आवश्यक है और मानवता की प्रगति के लिये अनिवार्य है। इसका ध्येय अपराधी को योग्य और शान्तिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। किन्तु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लें, तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिये गये दण्ड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दण्डों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीबी एक अभिशाप है। यह एक दण्ड है। मैं पूछता हूँ कि दण्ड प्रक्रिया की कहाँ तक प्रशंसा करें, जो अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो, किसी गरीब या अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का क्या भाग्य होगा? चूँकि वह गरीब है, इसलिये पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता है, जो ऊँची जाति में पैदा होने के कारण अपने को ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोेगेगा? ईष्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दण्ड के बारे में क्या होगा, जिन्हें दम्भी ब्राह्मणों ने जानबूझ कर अज्ञानी बनाये रखा तथा जिनको तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकोंवेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा सहन करने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं, तो उसके लिये कौन ज़िम्मेदार होगा? और उनका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तों! ये सिद्धान्त विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। अपटान सिंक्लेयर ने लिखा था कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी सम्पत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाये इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबन्धन से ही जेल, फाँसी, कोड़े और ये सिद्धान्त उपजते हैं।
मैं पूछता हूँ तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह लागू करे। जहाँ तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराधएक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषणसफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!
क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूँ। चाल्र्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव। डार्विन कीजीव की उत्पत्तिपढ़ो। और तदुपरान्त सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की सम्भवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।
तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता है? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गये कार्यों का फल नहीं है? जीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्म, समप्रदाय, पन्थ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।
मनुष्य की सीमाओं को पहचानने पर, उसकी दुर्बलता दोष को समझने के बाद परीक्षा की घड़ियों में मनुष्य को बहादुरी से सामना करने के लिये उत्साहित करने, सभी ख़तरों को पुरुषत्व के साथ झेलने तथा सम्पन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिये ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई। अपने व्यक्तिगत नियमों तथा अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है, तो उसका उपयोग एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है। ताकि कोई मनुष्य समाज के लिये ख़तरा बन जाये। जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती , तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों द्वारा विश्वासघात तथा त्याग देने से अत्यन्त क्लेष में हो, तब उसे इस विचार से सान्त्वना मिल सकती हे कि एक सदा सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसको सहारा देगा तथा वह सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिये उपयोगी था। पीड़ा में पड़े मनुष्य के लिये ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है। समाज को इस विश्वास के विरुद्ध लड़ना होगा। मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त! यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। ईश्वर में विश्वास और रोज़--रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा हे, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फाँसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ।
हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी तो उसने कहा, ‘'अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।'’ मैंने कहा, ‘'नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिये अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूँ। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।'’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूँ।

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